“भगवद्गीता में योग। योगः कर्मसु कौशलम्” — श्रीमद्भगवद्गीता का यह सूत्र न केवल आध्यात्मिक विकास का मार्ग दिखाता है, बल्कि जीवन को तर्क और विवेक से जीने की विधि भी सिखाता है। जहाँ आज योग को एक शारीरिक व्यायाम के रूप में देखा जाता है, वहीं भगवद्गीता योग को एक समग्र जीवनदृष्टि के रूप में प्रस्तुत करती है — मानसिक, नैतिक, और आध्यात्मिक विकास का वैज्ञानिक साधन।—योग की गीता में परिभाषा: केवल आसन नहीं, जीवन जीने की कलागीता में योग का अर्थ केवल शारीरिक आसनों तक सीमित नहीं है। श्रीकृष्ण योग को एक ऐसी जीवन-पद्धति के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जहाँ मनुष्य:इंद्रियों को संयमित करता है (इंद्रिय निग्रह),कर्तव्य को बिना फल की आकांक्षा के करता है (निष्काम कर्म),और आत्मा के स्वरूप को पहचानता है (आत्मबोध)।गीता में वर्णित मुख्य योग:1. कर्म योग – कर्म करते हुए फल की आसक्ति का त्याग।2. ज्ञान योग – आत्मा और शरीर का भेदज्ञान।3. भक्ति योग – ईश्वर में पूर्ण समर्पण।4. राज योग / ध्यान योग – मन की चंचलता पर नियंत्रण।इन सभी योगों का उद्देश्य एक ही है — आत्मा को उसकी शुद्ध स्थिति में लाना।—तर्कसंगत दृष्टिकोण: क्या यह आज भी प्रासंगिक है?1. मानसिक स्वास्थ्य के लिए उपयोगीआज जब मनुष्य चिंता, डिप्रेशन, और तनाव से ग्रसित है, तब गीता का “स्थितप्रज्ञ” व्यक्ति — जो सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय में सम रहता है — मानसिक संतुलन का आदर्श बन जाता है। यह एक अत्यंत व्यावहारिक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण है।2. कार्यस्थल पर उत्पादकता के लिए प्रेरणाकर्मयोग की अवधारणा बताती है कि किसी भी कार्य को उत्कृष्टता से करना ही योग है। यह आज की कॉर्पोरेट संस्कृति के लिए एक नैतिक आधार भी प्रदान करता है — बिना स्वार्थ के, निष्ठा से कार्य करना।3. विज्ञान के साथ सामंजस्यगीता में कहा गया है:”उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्” — अर्थात मनुष्य स्वयं को स्वयं ऊपर उठा सकता है।यह सिद्धांत आधुनिक मनोविज्ञान और न्यूरोबायोलॉजी से मेल खाता है, जहाँ ‘सेल्फ-डिसिप्लिन’ और ‘माइंडफुलनेस’ को मानसिक विकास का आधार माना गया है।—योग: गीता की आत्माभगवद्गीता का पूरा संवाद योग के ही इर्द-गिर्द घूमता है। युद्ध भूमि में खड़े अर्जुन का भ्रम और मोह, आत्मबोध और कर्तव्यबोध के माध्यम से समाप्त होता है — यही योग है।योग, अर्जुन को केवल लड़ने की प्रेरणा नहीं देता, बल्कि उसे धर्म, विवेक और आत्मिक बल के साथ जीने की विधि सिखाता है।—निष्कर्षयोग और श्रीमद्भगवद्गीता केवल साधु-संन्यासियों के लिए नहीं, बल्कि हर व्यक्ति के लिए हैं — चाहे वह छात्र हो, गृहस्थ हो, व्यवसायी हो या नेता। गीता में वर्णित योग आज भी एक समय-सिद्ध वैज्ञानिक और तर्कसंगत पद्धति है, जो व्यक्ति को बाह्य और आंतरिक दोनों स्तरों पर शक्तिशाली और स्थिर बनाती है।अतः, यदि आधुनिक युग में शांति, स्थिरता और आत्मविकास चाहिए — तो योग और गीता की ओर लौटना ही एक सशक्त उत्तर है।

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