ईरान इजराइल में कौन सही कौन गलत और भारत की भूमिका क्या होनी चाहिए

ईरान और इजराइल विवाद एक जटिल ऐतिहासिक, धार्मिक, राजनीतिक और भू-राजनीतिक संघर्ष है। यह सवाल कि “कौन सही है और कौन गलत”, सीधा नहीं है, क्योंकि दोनों पक्षों की अपनी-अपनी दृष्टि, सुरक्षा चिंताएँ और ऐतिहासिक अनुभव हैं। नीचे विश्लेषण दिया गया है:




🌍 1. इजराइल और ईरान का संघर्ष: मूल कारण

🟦 इजराइल:

यहूदी राष्ट्र है, जिसकी स्थापना 1948 में हुई।

इजराइल खुद को एकमात्र यहूदी राज्य मानता है और अपनी सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है।

वह ईरान के परमाणु कार्यक्रम को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानता है।


🟥 ईरान:शिया इस्लामिक गणराज्य है। उसकी विदेश नीति में “इस्लामिक क्रांति” का प्रभाव है।
ईरान फिलिस्तीन और हिज़्बुल्लाह जैसे संगठनों का समर्थन करता है।

इजराइल को अवैध और “इस्लाम के दुश्मन” के रूप में देखता है

ईरान का परमाणु कार्यक्रम: इजराइल को डर है कि ईरान परमाणु बम बना सकता है।

हिज़्बुल्लाह और हमास का समर्थन: ईरान इन संगठनों को हथियार व पैसा देता है, जो इजराइल पर हमला करते हैं।

सीरिया और लेबनान में संघर्ष: ईरान की सैन्य उपस्थिति इजराइल के लिए सीधा खतरा है।





⚖️ कौन सही, कौन गलत?

ईरान: अक्सर आतंकवादी समूहों का समर्थन करता है और इजराइल को मिटा देने की भाषा बोलता है, जो अस्वीकार्य है।

इजराइल: अपनी रक्षा के नाम पर कई बार फिलिस्तीन में आम नागरिकों पर बमबारी करता है और अत्यधिक बल प्रयोग करता है।


📌 इसलिए: दोनों पक्षों ने ऐसे कदम उठाए हैं जो अंतरराष्ट्रीय कानून और मानवता के विरुद्ध माने जा सकते हैं। न तो कोई पूरी तरह सही है, न पूरी तरह गलत।




🇮🇳 भारत की भूमिका क्या होनी चाहिए?

भारत का दृष्टिकोण संतुलित और विवेकपूर्ण होना चाहिए।

✅ भारत को:

1. शांति और संवाद का समर्थन करना चाहिए।


2. द्विपक्षीय संबंधों को बनाए रखना चाहिए – भारत के ईरान और इजराइल दोनों से ऐतिहासिक और रणनीतिक रिश्ते हैं:

इजराइल: रक्षा तकनीक और कृषि सहयोग में भागीदार।

ईरान: ऊर्जा और चाबहार पोर्ट जैसे रणनीतिक प्रोजेक्ट्स में अहम।



3. निरपेक्ष रहना चाहिए – किसी भी धार्मिक या राजनीतिक ध्रुवीकरण से दूर।


4. संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर युद्ध नहीं, शांति और कूटनीति का पक्ष लेना चाहिए।


ईरान और इजराइल दोनों ही अपनी जगह पर कुछ हद तक सही भी हैं और गलत भी। भारत को किसी एक पक्ष में जाने के बजाय, शांति का मार्गदर्शक बनना चाहिए — जैसे महात्मा गांधी और नेहरू के युग में भारत ने “गुटनिरपेक्ष नीति” अपनाई थी।

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